gajanan madhav muktibodh ka jivan Parichay | | कवि परिचय गजानन माधव मुक्तिबोध कक्षा 12वीं हिंदी सीबीएसई बोर्ड

गजानन माधव मुक्तिबोध का जीवन परिचय
Gajanan Madhav Muktibodh ka Jeevan Parichay class 12th Hindi CBSE BoArd 

जन्म – 13 नवंबर सन् 1917, श्योपुर, ग्वालियर (मध्यप्रदेश)

प्रमुख रचनाएँ : चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी-भूरी खाक धूल (कविता संग्रह); काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी (कथा साहित्य); कामायनी एक पुनर्विचार, नयी कविता का आत्मसंघर्ष, नये साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, (अब 'आखिर रचना क्यों' नाम से) समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी (आलोचना); भारत इतिहास और संस्कृति

निधन – 11 सितंबर सन् 1964, नयी दिल्ली में

हमारी हार का बदला चुकाने आएगा, संकल्पधर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर, प्रकट होकर विकट हो जाएगा।

हार का बदला चुकाने वाले संकल्पधर्मा कवि मुक्तिबोध का पूरा जीवन संघर्ष में बीता। उन्होंने 20 वर्ष की छोटी उम्र में बड़नगर मिडिल स्कूल में मास्टरी की। तत्पश्चात शुजालपुर, उज्जैन, कोलकाता, इंदौर, मुंबई, बंगलौर, बनारस, जबलपुर, राजनांदगाँव आदि स्थानों पर मास्टरी से पत्रकारिता तक का काम किया। कुछ समय तक पाठ्यपुस्तकें भी लिखीं।

छायावाद और स्वच्छंदतावादी कविता के बाद जब नयी कविता आई तो मुक्तिबोध उसके अगुआ कवियों में से एक थे। मराठी संरचना से प्रभावित लंबे वाक्यों ने उनकी कविता को आम पाठक के लिए कठिन बनाया लेकिन उनमें भावनात्मक और विचारात्मक ऊर्जा अटूट थी, जैसे कोई नैसर्गिक अंत: स्रोत हो जो कभी चुकता ही नहीं बल्कि लगातार अधिकाधिक वेग और तीव्रता के साथ उमड़ता चला आता है। यह ऊर्जा अनेकानेक कल्पना-चित्रों और फैंटेसियों का आकार ग्रहण कर लेती है। मुक्तिबोध की रचनात्मक ऊर्जा को एक बहुत बड़ा अंश आलोचनात्मक लेखन और साहित्य संबंधी चिंतन में सक्रिय रहा। वे एक समर्थ पत्रकार भी थे। इसके अलावा राजनैतिक विषयों, अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य तथा देश की आर्थिक समस्याओं पर लगातार लिखा है। कवि शमशेर बहादुर सिंह के शब्दों में उनकी कविता-'अद्भुत संकेतों भरी जिज्ञासाओं से अस्थिर, कभी-दूर से शोर मचाती कभी कामों में चुपचाप राज की बातें कहती चलती है। हमारी बातें हमको सुनाती है। हम अपने को एकदम चकित होकर देखते हैं और पहले से अधिक पहचानने लगते हैं।'

मुक्तिबोध की कविताएँ सामान्यतः बहुत लंबी होती है। उन्होंने जो भी अपेक्षाकृत छोटे आकार की कविताएँ लिखी हैं, उनमें से एक है सहर्ष स्वीकारा है जो भूरी-भूरी खाक धूल में संकलित है। एक होता है-'स्वीकारना' और दूसरा होता है- 'सहर्ष स्वीकारना' यानी खुशी-खुशी स्वीकार करना। यह कविता जीवन के सब दुख-सुख, संघर्ष अवसाद, उठा-पटक सम्यक भाव से अंगीकार करने की प्रेरणा देती है। कवि को जहाँ से यह प्रेरणा मिली- प्रेरणा के उस उस तक भी हमको ले जाती है। उस विशिष्ट व्यक्ति या सत्ता के इसी 'सहजता' के चलते उसको स्वीकार किया था कुछ इस तरह स्वीकार (और आत्मसात) किया था कि आज तक वह सामने नहीं भी है तो भी आसपास उसके होने का एहसास है-

मुस्काता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है।

चूँकि यह एहसास आप्लावनकारी है और कविता का 'मैं' उसकी भावप्रवणता के निजी पक्ष से उबरकर सिर्फ विचार की तरह उसे जीना चाहता है क्योंकि वह बृहत्तर विश्व की गुत्थियाँ सुलझाने में उसकी मदद करेंगी। यह दिवंगता माँ, पत्नी, बहन, सहचरी कोई भी हो सकती है। सहज स्नेह की ऊष्मा जब विरह में अग्निशिखा-सी उहोप्त हो उठी है, थोड़ी-थोड़ी सी भी एकदम से जरूरी हो आई है और यह चाहने लगा है मोह-मुक्ति चाहने लगा है कि भूलने की प्रक्रिया एक अमावस की तरह उसके भीतर इस तरह घटित हो कि चाँद जरा सा ओठ हो तो अँधेरे से सामना हो तो, चित्त की ताकत बड़े। लगातार यह भौतिक और मानसिक अवलंब अंदर एक अज्ञात भय भी कायम करता है।
ममता के बादल की मँडराती कोमलता- क्योंकि भीतर पिराती है हाती आत्मीयता बरकत नहीं होती है।

दृढ़ता और तद्जन्य कठोरता भी बड़े मानव मूल्य है, इसलिए भूल जाना भी एक कला है। अति किसी चीज की अच्छी नहीं हर समय की माता भी कमोर करती है। अतिशय प्रकाश से आँखें या जाती है। इसलिए किसी हद तक वरेण्य है अभी विस्मृति का अंधेरा आदमी हरदम सब कुछ याद करता चले, वो जीना ही मुश्किल हो जाए।

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