आत्मपरिचय
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ, फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ; कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हूँ।
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ, मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ, जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते, मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार न मुझको भाता मैं स्वप्नों का
संसार लिए फिरता हूँ!
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ, सुख-दुख दोनों में मरन रहा करता हूँ। जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ;
मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूं, उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूं, जो मुझको बाहर हंस रुलाती भीतर मैं हाय किसी की याद लिए फिरता हूं।
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना? नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे ? मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना !
मैं और, और जग और, मैं बना-बना कितने जग कहाँ का नाता, रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ, शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ, हों जिस मैं वह खंडहर पर भूपों के प्रासाद निछावर, भाग लिए फिरता हूँ।
हरिवंश राय बच्चन
Comments
Post a Comment